सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अदालतों के पास यह सत्ता और कर्तव्य दोनों है कि वे सरकार की कार्यपालिका शाखा को किसी कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा करने और प्रदर्शन ऑडिट कराने का निर्देश दें, खासकर जब किसी कानून का उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा हो। कोर्ट ने कहा कि ऐसा मूल्यांकन करना कानून के शासन (Rule of Law) का एक अनिवार्य हिस्सा है।
"किसी कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा और मूल्यांकन कानून के शासन का एक अभिन्न हिस्सा है," कोर्ट ने कहा।
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यह महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिंहा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की कुछ धाराओं को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए की। याचिका में इस बात पर आपत्ति जताई गई थी कि उपभोक्ता आयोगों की मौद्रिक अधिकारिता (pecuniary jurisdiction) मुआवजे की राशि के बजाय विचाराधीन मूल्य के आधार पर तय की जाती है। कोर्ट ने यह चुनौती खारिज कर दी।
सुनवाई के दौरान यह तर्क दिया गया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 अपने लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहा है। इस पर कोर्ट ने कानून की समीक्षा के महत्व पर टिप्पणी की और कहा:
“ऐसी समीक्षा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई कानून व्यावहारिक रूप से वैसा ही काम कर रहा है जैसा कि उसका इरादा था। अगर नहीं, तो कारण समझना और उसे जल्द से जल्द ठीक करना।”
कोर्ट ने अपने पिछले फैसले यश डेवेलपर्स बनाम हरिहर कृपा को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड (2024) का हवाला देते हुए कहा कि यह कार्यपालिका सरकार का निहित कर्तव्य है कि वह यह मूल्यांकन करे कि क्या किसी कानून के उद्देश्य पूरे हो रहे हैं या नहीं।
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साथ ही, कोर्ट ने कहा कि न्यायिक हस्तक्षेप तब जरूरी हो जाता है जब कोई कानून नौकरशाही या न्यायिक प्रक्रियाओं में उलझकर अपने उद्देश्य पूरे करने में असफल हो जाता है। हालांकि, न्यायपालिका समीक्षा की सिफारिश कर सकती है, पर वह कानूनी सुधार के लिए मजबूर नहीं कर सकती।
"न्यायिक भूमिका में, इस कोर्ट की समझ के अनुसार, कार्यपालिका शाखा को कानूनों की कार्यप्रणाली की समीक्षा और सांविधिक प्रभाव का ऑडिट करने का अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य भी शामिल है।"
कोर्ट ने आगे कहा कि भारत की विधायी प्रक्रिया में ज्यादातर कानून सरकार द्वारा लाए जाते हैं और निजी सदस्य विधेयक (Private Member Bills) दुर्लभ होते हैं। ऐसे में जब कानून अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर पाते, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है।
"न्यायपालिका की यह सहायक भूमिका कानून का ऑडिट करने को प्रेरित करती है, बहस और चर्चा को बढ़ावा देती है, लेकिन कानून में संशोधन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।"
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उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के संदर्भ में, कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण जैसी सांविधिक संस्थाएं सरकार को प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सलाह देने की जिम्मेदारी रखती हैं।
"अगर ये संस्थाएं प्रभावी और कुशलता से कार्य करें, तो यह स्वाभाविक है कि कानून के उद्देश्य काफी हद तक पूरे हो जाएंगे," कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने जोर दिया कि इन संस्थाओं में प्रशासनिक कुशलता, विशेषज्ञता, मानव संसाधनों में ईमानदारी, पारदर्शिता और जवाबदेही होनी चाहिए। इसके अलावा नियमित समीक्षा, ऑडिट और मूल्यांकन बेहद जरूरी हैं ताकि उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
अंततः, कोर्ट ने निर्देश दिया कि केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद और प्राधिकरण को, धारा 3, 5, 10, 18 से 22 के तहत, सर्वेक्षण, समीक्षा और सरकार को उचित सुझाव देने जैसे सभी आवश्यक कदम उठाने चाहिए ताकि अधिनियम की कार्यप्रणाली अधिक प्रभावी और उपयोगी हो सके।
केस का शीर्षक: रुतु मिहिर पांचाल और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य, WP(C) 282/2021