दिल्ली हाईकोर्ट ने कोर्ट की अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 20 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया है। यह धारा अवमानना कार्यवाही शुरू करने की एक वर्ष की सीमा निर्धारित करती है। मुख्य न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा कोई ठोस कानूनी आधार प्रस्तुत नहीं किया गया।
यह याचिका राजेश रंजन द्वारा दायर की गई थी, जो विदेश मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी (ग्रेड I, IFS-B) के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा (LDCE) में सफलता प्राप्त की थी और खुद को OA संख्या 1719/2012 में एक पक्षकार बताया, जिसमें केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) ने अधिकारियों की वरिष्ठता सूची को दोबारा तैयार करने का निर्देश दिया था।
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CAT ने अपने 29.02.2020 के फैसले में निर्देश दिया था कि LDCE के माध्यम से प्रोन्नत अधिकारियों को उनके वास्तविक प्रोन्नति की तारीख से पहले प्रोन्नत नहीं माना जाए। इस आदेश को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने बरकरार रखा। अनुपालन न होने के आरोप के आधार पर एक अवमानना याचिका (CP संख्या 961/2024) दायर की गई, जिसमें CAT ने नोटिस जारी किया और 24.02.2025 को एक संयुक्त वरिष्ठता सूची का मसौदा प्रकाशित किया गया।
राजेश रंजन का कहना था कि चूंकि अवमानना याचिका धारा 20 की एक साल की समयसीमा के बाद दायर की गई थी, इसलिए CAT द्वारा इसे स्वीकार करना और उससे उत्पन्न वरिष्ठता सूची उनके अनुच्छेद 14, 16 और 20 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि उन्हें अवमानना कार्यवाही में भाग लेने का अवसर नहीं मिला।
हालांकि, कोर्ट ने कहा:
"याचिकाकर्ता की शिकायत यह भी है कि वह अवमानना कार्यवाही का हिस्सा नहीं था और इसलिए खुद को असहाय महसूस करता है।"
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधानिक वैधता को चुनौती देना केवल व्यक्तिगत असंतोष के आधार पर नहीं हो सकता, बल्कि इसके लिए मजबूत कानूनी आधार होना आवश्यक है। कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया, जैसे:
- रामकृष्ण डालमिया बनाम एस.आर. टेंडोलकर
- सुब्रमण्यम स्वामी बनाम सीबीआई
- शायरा बानो बनाम भारत संघ
इन फैसलों में यह सिद्ध किया गया है कि कोई भी कानून तब तक वैध माना जाएगा जब तक उसकी असंवैधानिकता स्पष्ट रूप से सिद्ध न हो।
"किसी विधि या अधिनियम की संवैधानिक वैधता की धारणा प्रारंभिक रूप से मानी जाती है... और उसे असंवैधानिक सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो उसे चुनौती देता है।"
कोर्ट ने पाया कि याचिका इस मानदंड पर खरी नहीं उतरती। याचिकाकर्ता की दलीलें मूलतः व्यक्तिगत शिकायतें थीं और उन्होंने कोई ऐसा मुद्दा नहीं उठाया जो स्पष्ट रूप से मनमाना, अव्यवस्थित या असंवैधानिक वर्गीकरण हो।
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कोर्ट ने अंत में कहा:
"ये दोनों मुद्दे किसी अधिनियम की संवैधानिकता को अमान्य घोषित करने के लिए न तो पर्याप्त हैं और न ही उन्हें कोई आधार माना जा सकता है।"
इसके साथ ही हाईकोर्ट ने याचिका को प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर दिया और कहा कि यह इतनी भी पर्याप्त नहीं है कि इस पर नोटिस जारी किया जाए।
केस का शीर्षक: राजेश रंजन बनाम भारत संघ और अन्य (डब्ल्यू.पी.(सी) 4965/2025)