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सिर्फ 'नपुंसक' जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध में नहीं आता: सुप्रीम कोर्ट

1 May 2025 2:38 PM - By Shivam Y.

सिर्फ 'नपुंसक' जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध में नहीं आता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि 'नपुंसक' जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल मात्र आत्महत्या के लिए उकसाने (Section 306 IPC) का अपराध नहीं बनता। हाल ही में दिए गए एक फैसले में कोर्ट ने उस व्यक्ति के ससुराल वालों के खिलाफ दर्ज आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिस पर आत्महत्या के लिए मजबूर करने का आरोप था।

यह मामला दिनेश नामक व्यक्ति की आत्महत्या से जुड़ा है, जिसने अपनी आत्महत्या से पहले एक नोट छोड़ा था, जिसमें उसने अपनी पत्नी और उसके रिश्तेदारों को जिम्मेदार ठहराया था। आरोप था कि पत्नी के परिवार के सदस्यों ने 10 नवंबर 2013 को दिनेश के साथ झगड़ा किया और उसे "नपुंसक" कहकर अपमानित किया। इसके बाद उसकी पत्नी अपने मायके चली गई। लगभग एक महीने बाद, 9 दिसंबर 2013 को दिनेश ने आत्महत्या कर ली।

मद्रास हाई कोर्ट ने पहले आरोपियों के खिलाफ एफआईआर को खारिज करने से इनकार कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने हाई कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए कहा कि कोई प्रत्यक्ष उकसावा या लगातार प्रताड़ना का प्रमाण नहीं है।

"सुसाइड नोट से यह सिद्ध नहीं होता कि आरोपियों ने मृतक को उकसाया या उस पर ऐसी कोई लगातार क्रूरता या प्रताड़ना की जिससे आत्महत्या का अपराध बनता हो," कोर्ट ने कहा।

कोर्ट ने यह भी बताया कि घटना के बाद मृतक और आरोपियों के बीच कोई संपर्क नहीं था। 11 नवंबर 2013 के बाद से लेकर 9 दिसंबर 2013 को आत्महत्या तक कोई बातचीत या मुलाकात नहीं हुई, जिससे निरंतर प्रताड़ना का कोई आधार नहीं बनता।

"मंस रिया (mens rea) केवल अनुमान के आधार पर नहीं मानी जा सकती, वह स्पष्ट रूप से दिखनी चाहिए, जो इस मामले में नहीं है," कोर्ट ने कहा। यह दर्शाता है कि आत्महत्या के लिए उकसाने की मानसिकता का कोई प्रमाण नहीं है।

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 306 आईपीसी के तहत अपराध सिद्ध करने के लिए धारा 107 के तत्वों की पूर्ति आवश्यक है — जैसे कि उकसाना, साजिश में शामिल होना, या सहायता देना।

"सिर्फ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर किसी व्यक्ति को अपमानित करना अपने आप में आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराध नहीं बनता," कोर्ट ने कहा, और एम. अर्जुनन बनाम राज्य मामले का हवाला दिया।

न्यायालय ने कहा कि हर मामला अपने तथ्यों पर आधारित होता है और मानव व्यवहार जटिल होता है। अपमानजनक बातें आहत कर सकती हैं, लेकिन यदि उनका सीधा संबंध आत्महत्या से नहीं हो तो अपराध नहीं बनता।

इस मामले में कोर्ट ने पाया कि ऐसा कोई संबंध नहीं बनता। घटना और आत्महत्या के बीच समय का अंतर, संपर्क की कमी, और प्रत्यक्ष उकसावे का अभाव इस निष्कर्ष की ओर इशारा करता है कि धारा 306 के तहत आवश्यक कानूनी तत्व पूरे नहीं होते।

"जब धारा 306 के तहत अपराध ही सिद्ध नहीं होता, तब अभियुक्तों के खिलाफ कार्यवाही जारी रखना न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा," कोर्ट ने कहा।

इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए मद्रास हाई कोर्ट के निर्णय और निचली अदालत में लंबित आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।

केस का शीर्षक: शेनबागवल्ली और अन्य बनाम पुलिस निरीक्षक, कांचीपुरम जिला और अन्य।

उपस्थिति:

याचिकाकर्ता(ओं) के लिए सुश्री रेबेका जॉन, सीनियर एडवोकेट श्री जॉन मैथ्यू, एओआर सुश्री रचना श्रीवास्तव, सीनियर एडवोकेट श्रीमती मोना के राजवंशी, एओआर सुश्री मोनिका, एडवोकेट श्री अनुराग कश्यप, एडवोकेट।

प्रतिवादी(ओं) के लिए श्री वी कृष्णमूर्ति, सीनियर एएजी श्री डी. कुमानन, एओआर सुश्री दीपा एस, एडवोकेट श्री शेख एफ कालिया, एडवोकेट सुश्री अज़का शेख कालिया, एडवोकेट श्री विशाल त्यागी, एडवोकेट श्री चिन्मय आनंद पानीग्रही, एडवोकेट।