दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने हालिया निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया कि अदालतों की यह जिम्मेदारी है कि वे अभियुक्त के शीघ्र सुनवाई के अधिकार की रक्षा करें, न कि लंबी हिरासत के बाद इस देरी पर अफसोस जताएं। जस्टिस अनुप जयराम भंभानी ने धोखाधड़ी के एक मामले में अभियुक्त अमित अग्रवाल को जमानत देते हुए कहा कि अदालतों को समय रहते कार्रवाई करनी चाहिए ताकि न्याय सुनिश्चित हो सके।
“कब तक बहुत देर हो जाती है, इससे पहले कि अदालत यह महसूस करे कि एक अंडरट्रायल बहुत लंबे समय से हिरासत में है, और संविधान का शीघ्र सुनवाई का वादा विफल हो चुका है?” — जस्टिस अनुप जयराम भंभानी
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यह मामला एक आपराधिक साजिश से जुड़ा था, जिसमें कुछ अधिकारियों ने कथित तौर पर जाली दस्तावेज़ बनाकर कस्टम विभाग की बिना दावे की गई राशि को हड़पने की योजना बनाई थी। अग्रवाल पर इस साजिश में वित्तीय माध्यम की भूमिका निभाने का आरोप था और वे 13 महीने से अधिक समय से न्यायिक हिरासत में थे।
दिल्ली की आर्थिक अपराध शाखा (EOW) द्वारा अक्टूबर 2023 में दर्ज की गई एफआईआर के अनुसार, इस मामले में एक पूर्व कस्टम अधिकारी, एक बैंक प्रबंधक और अन्य अभियुक्त शामिल थे, जिन्होंने लगभग ₹10 करोड़ की हेराफेरी की।
अग्रवाल के वकील ने दलील दी कि वे इस साजिश के मुख्य सूत्रधार नहीं थे और न ही किसी प्रकार की जालसाज़ी में उनकी भूमिका थी। उन्हें कथित तौर पर अपने खाते इस्तेमाल करने की अनुमति देने के लिए बहलाया गया था, यह कहते हुए कि यह केवल ‘टैक्स सेविंग’ के लिए किया जा रहा है। इस मामले में चार्जशीट पहले ही दाखिल हो चुकी है, जिसमें 49 गवाहों के नाम हैं और यह लगभग 10,000 पृष्ठों की है, लेकिन अब तक आरोप तय नहीं हुए हैं और मुकदमा शुरू नहीं हुआ है।
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“अधिकतम सज़ा चाहे जो हो... वर्तमान में याचिकाकर्ता केवल एक अभियुक्त हैं और अब तक किसी अपराध में दोषी नहीं ठहराए गए हैं। मुकदमे की प्रतीक्षा में उन्हें अनिश्चितकाल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता।” — दिल्ली हाईकोर्ट
अदालत ने स्पष्ट किया कि लंबी पूर्व-ट्रायल हिरासत संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने यह भी कहा कि पूर्व-ट्रायल हिरासत का उद्देश्य अभियुक्त को सज़ा देना नहीं है, बल्कि केवल उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करना है।
“यह आवश्यक है कि अदालत अभियुक्त के शीघ्र सुनवाई के अधिकार को पहचाने और उसकी रक्षा करे; न कि बहुत देर से जागे और कहे कि अधिकार नष्ट हो गया।” — दिल्ली हाईकोर्ट
सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का हवाला देते हुए, अदालत ने बताया कि दोष सिद्धि से पहले की कैद से व्यक्ति को मानसिक और सामाजिक नुकसान होता है, विशेषकर कमजोर वर्गों के लिए यह स्थिति आजीविका, सम्मान और पारिवारिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
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राज्य सरकार की इस दलील के बावजूद कि अग्रवाल की भूमिका बड़ी थी, अदालत ने पाया कि उनके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है जो यह दर्शाता हो कि उन्होंने जालसाज़ी की या धोखाधड़ी के पैमाने को समझते थे। अन्य सह-आरोपियों को पहले ही जमानत दी जा चुकी है, और अग्रवाल ने कभी भी अंतरिम जमानत की शर्तों का उल्लंघन नहीं किया।
चूंकि उनकी निरंतर हिरासत के लिए कोई ‘आवश्यकता’ नहीं थी और ट्रायल में विलंब स्पष्ट था, इसलिए अदालत ने उन्हें कड़े शर्तों के साथ नियमित जमानत दी, जिसमें ₹5 लाख का बॉन्ड, पासपोर्ट जमा करना और गवाहों से संपर्क नहीं करना शामिल था।
“शीघ्र सुनवाई का अधिकार, निर्दोषता की धारणा का पूरक है… यदि अदालत इस धारणा को नजरअंदाज़ करती है और ट्रायल को तेजी से नहीं कराती, तो यह न्याय का अपमान होगा।” — दिल्ली हाईकोर्ट
यह निर्णय न्यायपालिका को यह याद दिलाता है कि उसे अंडरट्रायल अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ताकि न्यायिक प्रक्रिया स्वयं ही सज़ा न बन जाए।
शीर्षक: अमित अग्रवाल बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य और अन्य।