कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की है कि वे भारत के संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code - UCC) लागू करने की दिशा में ठोस कदम उठाएं।
न्यायमूर्ति हनचेटे संजीव कुमार ने अपने फैसले में कहा:
“भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लिखित समान नागरिक संहिता का निर्माण और कार्यान्वयन, संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में एक मजबूत कदम होगा – एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना, देश की एकता और अखंडता, और न्याय, स्वतंत्रता, समानता व बंधुता को सुनिश्चित करना।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि भले ही भारत की सभी महिलाएं नागरिक रूप से समान हैं, लेकिन धार्मिक पर्सनल लॉ के कारण महिलाओं के अधिकारों में अंतर है। न्यायालय ने कहा:
“भारत की महिलाएं समान नागरिक हैं, लेकिन विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ के कारण उनके अधिकारों में असमानता है। हिंदू कानून में पुत्री को पुत्र के समान अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन मुस्लिम कानून में ऐसा नहीं है।”“सूची ‘A’ और ‘B’ दोनों संपत्तियाँ केवल शहनाज़ की नहीं, बल्कि शहनाज़ और उनके पति की संयुक्त संपत्तियाँ थीं।”
मामले की पृष्ठभूमि:
यह टिप्पणी न्यायालय ने समीउल्ला खान बनाम सिराजुद्दीन मक्की (मामला: RFA No.935/2020 और RFA Cross Objection No.33/2023) में की। यह मामला शहनाज़ बेगम की मृत्यु के बाद उनकी संपत्तियों के बंटवारे को लेकर था, जिसमें उनके भाई और बहन (अपीलकर्ता) हिस्सेदारी मांग रहे थे।
विवाद दो संपत्तियों को लेकर था:
- सूची ‘A’ संपत्ति: शहनाज़ के पति की सेवा काल में खरीदी गई
- सूची ‘B’ संपत्ति: पति के सेवानिवृत्त होने के बाद, शहनाज़ के शिक्षिका पद पर रहते हुए खरीदी गई
अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि ये दोनों संपत्तियाँ शहनाज़ की स्वयं की कमाई से अर्जित संपत्ति थीं और इसलिए उन्हें और पति को बराबर 50-50 प्रतिशत हिस्सेदारी मिलनी चाहिए।
कोर्ट ने तथ्यों की जांच के बाद यह पाया कि ये संपत्तियाँ सिर्फ शहनाज़ की नहीं थीं, बल्कि उनके और पति की संयुक्त कमाई से अर्जित की गई थीं। न्यायालय ने कहा:
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इसलिए कोर्ट ने अपीलकर्ताओं का यह दावा खारिज कर दिया कि संपत्तियाँ पूरी तरह शहनाज़ की थीं। अदालत ने कहा:
कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार वारिसों के हिस्से तय किए। कानून के अनुसार:
- पति और भाई ‘शेयरर’ (Sharer) होते हैं
- बहन ‘रेजिडुअरी’ (Residuary) होती है, जिसका हिस्सा बचे हुए हिस्से से दिया जाता है
इस असमानता पर कोर्ट ने कहा:
“हिंदू कानून में भाई-बहन को समान अधिकार मिलते हैं, लेकिन मुस्लिम कानून में बहन को कम हिस्सा मिलता है। यह अंतर बताता है कि भारत को समान नागरिक संहिता की आवश्यकता क्यों है।”“सिर्फ इसलिए कि सूची ‘B’ संपत्ति पति के रिटायरमेंट के बाद खरीदी गई, यह नहीं माना जा सकता कि वह शहनाज़ की खुद की कमाई से खरीदी गई थी।”
इसी आधार पर कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश में संशोधन करते हुए हिस्से इस प्रकार निर्धारित किए:
- भाई (वादी 1 व 2): प्रत्येक को 1/10वाँ हिस्सा
- बहन (वादी 3): 1/20वाँ हिस्सा
- पति (उत्तरवादी): 3/4वाँ हिस्सा
कोर्ट ने अपने निर्णय में अनुच्छेद 44 का विशेष उल्लेख करते हुए बताया कि भारत के संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता का समर्थन किया था। इसके साथ ही, कोर्ट ने इन सुप्रीम कोर्ट फैसलों का भी उल्लेख किया:
- मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम (1985)
- सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)
- जॉन वलमट्टोम बनाम भारत संघ (2003)
इन फैसलों में संसद से समान नागरिक संहिता बनाने की सिफारिश की गई थी।
न्यायालय ने अपने निर्णय की एक प्रति भारत सरकार और कर्नाटक राज्य के विधि सचिवों को भेजने का निर्देश दिया। न्यायालय ने कहा:
“उम्मीद है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस दिशा में प्रयास करेंगी और अनुच्छेद 44 के उद्देश्य को पूरा करते हुए समान नागरिक संहिता की दिशा में कानून बनाएंगी।”