24 जनवरी 2025 को, हाईकोर्ट की एक बड़ी पीठ ने एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपील प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। इस फैसले ने एक बहस को सुलझाया: "यदि आरोपी को एससी/एसटी एक्ट के तहत बरी कर दिया गया है, लेकिन आईपीसी के तहत सजा मिली है, तो क्या अपील सीआरपीसी के बजाय धारा 14ए के तहत दायर की जानी चाहिए?"
कोर्ट ने पहले के तेजा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के फैसले को पलट दिया और धारा 14ए के 'नॉन-ऑब्स्टेंट क्लॉज' तथा एससी/एसटी एक्ट की प्राथमिकता पर जोर दिया। यह लेख इस फैसले को विस्तार से समझाता है।
पृष्ठभूमि: कानूनी भ्रम क्यों पैदा हुआ?
भ्रम की स्थिति धारा 14ए की व्याख्या को लेकर पैदा हुई, जो विशेष अदालतों के फैसलों के खिलाफ अपील को नियंत्रित करती है। तेजा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019) में, एक डिवीजन बेंच ने कहा था कि यदि आरोपी को एससी/एसटी एक्ट के तहत बरी कर दिया जाता है, लेकिन आईपीसी के तहत दोषी ठहराया जाता है, तो अपील सीआरपीसी के तहत दायर की जानी चाहिए।
हालांकि, बाद में एक एकल न्यायाधीश ने इस विचार पर सवाल उठाते हुए कहा कि धारा 14ए का 'नॉन-ऑब्स्टेंट क्लॉज' ("सीआरपीसी के प्रावधानों के होते हुए भी") स्पष्ट करता है कि विशेष अदालतों के सभी फैसलों के खिलाफ अपील एससी/एसटी एक्ट के तहत ही दायर होगी, चाहे आरोपी को एससी/एसटी एक्ट के तहत बरी क्यों न किया गया हो।
मुख्य प्रश्न: कोर्ट ने किन मुद्दों पर विचार किया?
बड़ी पीठ ने दो प्रमुख सवालों का जवाब दिया:
- एससी/एसटी एक्ट के तहत बरी होने पर आईपीसी सजा के खिलाफ अपील कहाँ दायर करें? क्या सीआरपीसी या धारा 14ए लागू होगी?
- तेजा केस का फैसला कितना सही था? क्या डिवीजन बेंच की व्याख्या गलत थी?
कोर्ट का विश्लेषण: धारा 14ए ही क्यों लागू है?
- धारा 14ए का स्पष्ट भाषा
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि धारा 14ए(1) साफ तौर पर कहती है:
"सीआरपीसी के किसी भी प्रावधान के होते हुए भी, विशेष अदालत के किसी भी फैसले, सजा या आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की जा सकती है।"
इस भाषा से स्पष्ट है: विशेष अदालतों के सभी फैसलों के खिलाफ अपील धारा 14ए के तहत ही दायर होगी, भले ही सजा केवल आईपीसी के तहत क्यों न हो।
- एससी/एसटी एक्ट की प्राथमिकता
एससी/एसटी एक्ट की धारा 20 इसे सीआरपीसी सहित अन्य कानूनों पर प्राथमिकता देती है। कोर्ट ने कहा:
"इस अधिनियम का उद्देश्य वंचित समुदायों की सुरक्षा है। सीआरपीसी के तहत अपील दायर करना इस उद्देश्य को कमजोर करता है।"
- तेजा केस में गलत व्याख्या
तेजा के फैसले में नजरअंदाज किया गया:- धारा 14ए का नॉन-ऑब्स्टेंट क्लॉज।
- सीआरपीसी की धारा 4 और 5 का सामंजस्य, जो विशेष कानूनों (जैसे एससी/एसटी एक्ट) को सामान्य प्रक्रियाओं पर प्राथमिकता देता है।
बड़ी पीठ ने निष्कर्ष निकाला:
"तेजा के फैसले ने धारा 14ए के पीछे के विधायी इरादे को नजरअंदाज किया और एससी/एसटी एक्ट व आईपीसी सजा के बीच कृत्रिम अंतर पैदा किया।"
- एकरूपता: विशेष अदालतों के सभी फैसलों (चाहे दोषमुक्ति, सजा या आदेश) के खिलाफ अपील अब धारा 14ए के तहत ही दायर होगी।
- पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण: यह फैसला पीड़ितों के अधिकारों (जैसे जमानत या सजा की सुनवाई में भागीदारी) को मजबूत करता है।
- तेज न्याय: धारा 14ए के तहत अपील केंद्रीकृत होने से मामलों का निपटारा तेजी से होगा, जो अधिनियम के उद्देश्य के अनुरूप है।
यह फैसला प्रक्रियात्मक भ्रम को दूर करता है और एससी/एसटी एक्ट के ढांचे को मजबूत करता है। वकीलों और पीड़ितों को अब विशेष अदालतों के फैसलों के खिलाफ धारा 14ए का ही सहारा लेना होगा, भले ही सजा आईपीसी के तहत क्यों न हो। कोर्ट ने कहा:
"विधायी इरादा स्पष्ट है: विशेष कानूनों के लिए विशेष प्रक्रियाएं आवश्यक हैं। इसे नजरअंदाज करना वंचित समुदायों के साथ अन्याय है।"
यह फैसला न्यायपालिका की भूमिका को रेखांकित करता है, जो कानूनी इरादों को बनाए रखते हुए व्यक्तिगत अधिकारों का संतुलन बनाता है। कानूनी पेशेवरों को पुराने मामलों (जो सीआरपीसी के तहत दायर हैं) की समीक्षा करनी चाहिए और उन्हें धारा 14ए के तहत दोबारा दायर करने पर विचार करना चाहिए।
"कानून व्याख्या के माध्यम से विकसित होते हैं। यह फैसला सामाजिक न्याय और कानूनी प्रक्रियाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने में एक मील का पत्थर है।" — कानूनी विशेषज्ञ विश्लेषण