भारत का सुप्रीम कोर्ट जल्द ही यह तय करेगा कि क्या एक तलाकशुदा पुरुष को सरोगेसी के माध्यम से संतान प्राप्ति की अनुमति दी जानी चाहिए। एक 45 वर्षीय तलाकशुदा पुरुष ने एक रिट याचिका दायर कर, सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 की धारा 2(1)(s) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है।
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने इस मामले पर विचार करने और नोटिस जारी करने पर सहमति दी है। उल्लेखनीय है कि यही पीठ सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 और सरोगेसी (विनियमन) नियम, 2022 को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह पर भी सुनवाई कर रही है, विशेषकर ऊपरी आयु सीमा के मुद्दे पर।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि धारा 2(1)(s) केवल 35 से 45 वर्ष की आयु की विधवा और तलाकशुदा महिलाओं को सरोगेसी का लाभ लेने की अनुमति देती है, लेकिन तलाकशुदा पुरुषों को इस अधिकार से वंचित कर देती है।
"एकल पुरुषों का ऐसा स्पष्ट बहिष्कार एक भेदभावपूर्ण वर्गीकरण है, जिसका अधिनियम के उद्देश्य से कोई तार्किक संबंध नहीं है," याचिका में कहा गया है।
याचिका इस बहिष्कार को "पिछड़ेपन से प्रेरित" बताते हुए कहती है कि इसका कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार नहीं है और यह केवल मातृत्व के संबंध में पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ाता है।
"याचिकाकर्ता से सरोगेसी के अधिकार का इनकार किसी वैज्ञानिक, तार्किक या बाल कल्याण विचारों पर आधारित नहीं है — बल्कि यह एक पुरानी पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित प्रतिगामी और बहिष्करण नीतियों का परिणाम है," याचिका में कहा गया है।
याचिका के अनुसार यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है:
अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार): "अभिभावकत्व किसी विशेष लिंग को दिया गया विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि समानता, गरिमा और स्वायत्तता में निहित एक मौलिक अधिकार है। तलाकशुदा पुरुषों को सरोगेसी से वंचित करना अनुच्छेद 14 के वर्गीकरण परीक्षण में विफल रहता है।"
अनुच्छेद 15(1) (भेदभाव का निषेध): "केवल विवाहित विषमलैंगिक जोड़ों को सरोगेसी तक सीमित करना भेदभावपूर्ण है, और पुराने लिंग भूमिकाओं को मजबूत करता है।"
अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार): याचिका में के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ निर्णय का हवाला देते हुए कहा गया है: "प्रजनन संबंधी विकल्प निजता का एक अभिन्न हिस्सा हैं, और प्रत्येक व्यक्ति को मातृत्व-पितृत्व पर स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार है।"
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यह सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन के फैसले का भी हवाला देती है, जिसमें प्रजनन स्वायत्तता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी।
याचिका में बताया गया है कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 7 जैसे अन्य कानून एकल पुरुषों को दत्तक ग्रहण करने की अनुमति देते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पितृत्व वैवाहिक स्थिति पर निर्भर नहीं है।
साथ ही, गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक के मामले में भी कहा गया था कि पुरुष और महिला दोनों समान रूप से बच्चों का पालन-पोषण करने में सक्षम हैं।
याचिका में कहा गया है कि लाभकारी कानूनों जैसे सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम का व्याख्या इस तरह होनी चाहिए जो समानता, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वायत्तता को बढ़ावा दे।
"पितृत्व कोई ऐसा विशेषाधिकार नहीं है जिसे राज्य अपने अनुसार दे, बल्कि यह एक निहित अधिकार है जिसे संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप संरक्षित किया जाना चाहिए," याचिका कहती है।
नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ और जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ मामलों का हवाला देते हुए याचिका कहती है कि संविधान को समय के साथ विकसित होकर गरिमा और समानता को बढ़ावा देना चाहिए।
"तलाकशुदा एकल पुरुषों को सरोगेसी से वंचित करना पुराने लिंग भूमिकाओं पर आधारित है, जो यह मानती है कि केवल महिलाएं ही बच्चों की प्राथमिक देखभाल कर सकती हैं," याचिका में कहा गया है।
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याचिका में अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों जैसे मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (ICCPR) का भी उल्लेख किया गया है, जो बिना किसी भेदभाव के प्रजनन अधिकारों को मान्यता देते हैं।
मांगी गई राहतें:
- तलाकशुदा और अविवाहित पुरुषों को सरोगेसी से वंचित करना असंवैधानिक घोषित किया जाए।
- धारा 2(1)(s) को निरस्त या पढ़कर तलाकशुदा पुरुषों को सरोगेसी के दायरे में शामिल किया जाए।
- याचिका का खर्च याचिकाकर्ता को दिया जाए।
- न्याय के हित में कोई भी उपयुक्त आदेश पारित किया जाए।
यह मामला अब जुलाई में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध है।
मामले का शीर्षक: डॉ. महेश्वर एम.वी बनाम भारत संघ