केरल हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है कि जब किसी सार्वजनिक सेवक पर अनुसूचित जाति (SC) की महिला का अपमान करने और सरकारी रिकॉर्ड में हेरफेर करने का आरोप हो, तो धारा 197 CrPC के तहत अभियोजन के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। कोर्ट ने विशेष अदालत द्वारा SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम और भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत आरोप तय करने के आदेश को रद्द करने की मांग वाली वी.टी. जिनू की पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जातिगत अपमान और रिकॉर्ड में हेरफेर जैसी कार्रवाइयां किसी भी सार्वजनिक सेवक के आधिकारिक कार्यों का हिस्सा नहीं हो सकतीं। इसलिए, ऐसे मामलों में अभियोजन बिना किसी सरकारी मंज़ूरी के आगे बढ़ सकता है।
“...अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य का अपमान और डराना तथा एक बैठक के आयोजन को दिखाने के लिए रिकॉर्ड गढ़ना, ये ऐसे विषय नहीं हैं जो किसी सार्वजनिक सेवक के आधिकारिक कर्तव्यों के अंतर्गत आते हों, और इसलिए ऐसे अपराधों के लिए, भले ही आरोपी सार्वजनिक सेवक हो, धारा 197 CrPC के तहत अभियोजन की मंज़ूरी आवश्यक नहीं है।”
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यह मामला न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन द्वारा सुना गया, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले इंदिरा देवी बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य पर आधारित निर्णय दिया, जिसमें यह कहा गया था कि सार्वजनिक सेवकों द्वारा की गई धोखाधड़ी, रिकॉर्ड में हेरफेर या गबन जैसी कार्रवाई आधिकारिक कर्तव्यों के अंतर्गत नहीं आती।
इस मामले में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि याचिकाकर्ता और एक अन्य आरोपी (अब मृत) ने उसे उसकी आधिकारिक ड्यूटी के दौरान जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया। साथ ही उन पर यह भी आरोप था कि उन्होंने झूठे दस्तावेज तैयार किए जिससे यह साबित हो सके कि शिकायतकर्ता ने “9 CB बिलों” में धन का दुरुपयोग किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें निलंबित कर दिया गया।
याचिकाकर्ता ने IPC की धारा 294(b), 465, 466, 474 एवं धारा 34, साथ ही SC/ST अधिनियम की धारा 3(1)(x) के तहत आरोपों से खुद को मुक्त करने की मांग की थी। उनका तर्क था कि जब तक CrPC की धारा 197 के तहत मंज़ूरी प्राप्त नहीं होती, तब तक आरोप तय नहीं किए जा सकते।
हालांकि, कोर्ट ने यह याचिका खारिज कर दी और कहा:
“इस प्रकार, आरोप तय करने के आदेश में कोई हस्तक्षेप आवश्यक नहीं है और इसलिए यह पुनरीक्षण याचिका अस्वीकार की जाती है।”
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि किसी कार्य को सार्वजनिक सेवक का आधिकारिक कर्तव्य मानने के लिए केवल प्रारंभिक दृष्टिकोण (prima facie view) ही पर्याप्त है। यदि उस कार्य का आधिकारिक कर्तव्यों से कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है, तो अभियोजन के लिए मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं होती।
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न्यायमूर्ति बदरुद्दीन ने संदीप जी बनाम केरल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई व्याख्याओं का भी उल्लेख किया, जिसमें आरोप तय करने और अभियुक्त को आरोपमुक्त करने के सिद्धांत स्पष्ट किए गए हैं।
कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि जातिसूचक अपमान और रिकॉर्ड में हेरफेर जैसे आरोप आधिकारिक कर्तव्यों के अंतर्गत नहीं आते, और इसीलिए CrPC की धारा 197 के तहत मंज़ूरी की कोई आवश्यकता नहीं है।
मामले का नाम: वी.टी. जिनू एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य
मामला संख्या: Crl.Rev.Pet. No. 15 of 2018
याचिकाकर्ताओं/आरोपियों के वकील: श्रीमती के.जी. मैरी और श्री. अरुण पी. एंटनी
प्रतिवादियों के वकील: जिबू टी.एस. (लोक अभियोजक)